धर्मचक्र प्रवर्तन में भगवान् बुद्ध ने कहा – एस धम्मो सनंतनो
(भगवान् बुद्ध जयंती पर विशेष)
-डॉ. आनंद सिंह राणा, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत
“न हि वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो॥”
धम्मपद बौद्ध साहित्य का सर्वोत्कृष्ट लोकप्रिय ग्रंथ है। इसमें बुद्ध भगवान के नैतिक उपदेशों का संग्रह है। धम्मपद एक पालि शब्द है, जिसका अर्थ है- “सिद्धांत के शब्द” या “सत्य का मार्ग”। धम्मपद संभवत: पालि बौद्ध धार्मिक ग्रंथों में सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसे गीता के समान पवित्र माना है।धम्मपद अन्य बौद्ध लेखों में उद्धत किया जाता है।धम्मपद मूल बौद्ध शिक्षाओं का संग्रह है, जो आसान सूक्तियों की शैली में हैं। सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय के दूसरे पाठ के रूप में धम्मपद में 26 अध्यायों में 423 पद हैं। जिसमें एस धम्मो सनन्तनो पर प्रकाश डाला गया है।
एक लंबे अरसे से बुद्धि विकार से ग्रस्त तथाकथित सेक्यूलर बौद्ध विद्वान और उनके चिरकुट मौसेरे भाई – बहिन वामपंथी भगवान् बुद्ध के विचारों का प्रकारांतर से छिद्रान्वेषण कर बुद्ध धर्म को सनातन धर्म से पृथक बताने की कुचेष्टा करते रहे हैं और कर रहे हैं, परंतु भगवान् बुद्ध ने जब ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन’ किया तो इसका कोई संकेत नहीं दिया कि वह पहले की कोई परंपरा तोड़ रहे हैं।विपरीत उन्होंने कहा-‘एसो धम्मो सनंतनो’। अर्थात यही सनातन धर्म है, जिसे वे पुर्नव्याख्यायित मात्र कर रहे हैं। बुद्ध के संबोधन अपनी वैदिक जड़ों से मजबूती से जुड़े दिखते हैं। ‘हे ब्राह्मणों ’, ‘हे भिक्षुओं’, ‘हे आर्य’, आदि कहकर ही बुद्ध अपनी बातें कहते रहे। आर्य अर्थात भद्र, सभ्य, सज्जन। वस्तुतः सनातन धर्म की हानि रोकना यही भगवान् बुद्ध ने किया जो स्थापित हिंदू चेतना है। जिस तरह पहले भगवान् श्रीराम, भगवान् श्रीकृष्ण, आदि शंकराचार्य, संत रामानंद, संत कबीर या स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने उपदेशों से कोई नया धर्म नहीं चलाया उसी श्रेणी में गौतम बुद्ध का जीवन और कार्य है।
बुद्ध ने शिष्यों को शिक्षा देते हुए साधना द्वारा उसी बुद्धत्व की स्वयं ज्ञान प्राप्ति होने या करने की प्रेरणा दी जो भाव उपनिषदों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। उदाहरण के लिए भगवान् बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग के सिद्धांत ‘छांदोग्योपनिषद’ से लिए हैं। अतः जो लोग भारत में हिंदू धर्म-परंपरा के हर उत्कृष्ट विचार, मूल्य और वस्तु को बुद्ध धर्म से ‘उधार’ लिया या ‘नकल’ बताते हैं, उन्होंने स्वयं बौद्ध ग्रंथों का कदाचित् ही भलीभाँति अध्ययन किया है। ऐसे दुर्बुद्धियों को अपनी भ्रांति का सुधार करना चाहिए।
भगवान् विष्णु के अंशावतार “गौतम बुद्ध”(तथागत) का अवतरण वैशाख पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा) को हुआ था।आपके द्वारा व्याख्यायित बौद्ध धर्म, सनातन धर्म का ही मूल है। सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का अवतरण कपिलवस्तु के लुंबिनी ग्राम(563 ई. पू.) में हुआ। पिताश्री का नाम शुद्धोधन एवं माताश्री का नाम महामाया था। सहधर्मचारिणी यशोधरा एवं पुत्र राहुल थे। महापरिनिर्वाण कुशीनारा (483 ई. पू.)में हुआ।सनातन के मूल निहित स्वर्णिम मध्यम मार्ग के आलोक में “बौद्ध धर्म” के संस्थापक थे। तथागत के जीवन में सम संख्या और विशेषकर चार का विशेष संयोग रहा है -चार पूर्णिमा(जन्म से निर्वाण तक , चार घटनायें जिनके कारण 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया, चार महत्वपूर्ण जीवन के पड़ाव महाभिनिष्क्रमण अर्थात् गृह त्याग), संबोधि अर्थात् बोध गया में निरंजना नदी के किनारे पीपल के वृक्ष के नीचे छह वर्ष की तपस्या फलीभूत हुई। धर्मचक्रप्रवर्तन अर्थात् सारनाथ में प्रथम उपदेश और निर्वाण, चार आर्य सत्य , चार बौद्ध संगीतियाँ क्रमशः राजगृह, वैशाली, पाटलिपुत्र और कुण्डलवन में हुईं । वैंसे आष्टांगिक मार्ग, जो कि छांदोग्य उपनिषद से लिए गए हैं,और दस शील के सिद्धांत भी सम संख्या हैं, जो सनातन धर्म से उद्भूत है । वहीं त्रिरत्न क्रमशः बुद्ध, धम्म और संघ) तथा त्रिपिटक क्रमशः विनयपिटक, अभिधम्मपिटक,और सुत्तपिटक पालि भाषा में विषम संख्या में अभिव्यक्त हैं, ये संख्या भी सनातन के माहात्म्य का प्रतीक हैं ।
“प्रतीत्यसमुत्पाद” ही बुद्ध के उपदेशों का सार एवं उनकी संपूर्ण शिक्षाओं का आधार स्तंभ है। प्रतीत्य अर्थात् किसी वस्तु के होने पर, समुत्पाद अर्थात् किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति। निर्वाण परम लक्ष्य और वह इसी जीवन में ही करता है, जिसके लिए बुद्ध ने जरामरण चक्र के प्रकाश में बारह निदान चक्रों को बताया है, फिर पार करने के लिए चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, दस शील के सिद्धांत बताये हैं। बुद्ध अनीश्वरवादी और अनात्मवादी थे, परंतु पुनर्जन्म मानते थे और संसार को क्षणभंगुर भी! स्वर्णिम मध्यम मार्ग के जनक और करुणा के सागर हैं। मूढ़ मति मानते हैं कि गौतम बुद्ध ने कोई नया धर्म चलाया था और वे हिंदू धर्म से अलग हो गए थे। यद्यपि ऐसे लोग कभी नहीं बता पाते हैं कि बुद्ध कब हिंदू धर्म से अलग हुए? एक बहुचर्चित वाद-विवाद में बेल्जियम के विद्वान डॉ. कोएनराड एल्स्ट ने चुनौती दी कि वे बुद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग करके दिखाएं। एल्स्ट तुलनात्मक धर्म-दर्शन के प्रसिद्ध ज्ञाता हैं। ऐसे सवालों पर वामपंथी लेखकों की पहली प्रतिक्रिया होती है कि ‘दरअसल तब हिंदू धर्म जैसी कोई चीज थी ही नहीं।’ यह विचित्र तर्क है। जो चीज थी ही नहीं उसी से बुद्ध तब अलग हो गए? वामपंथी दलीलों में यह भी कहा जाता है कि हिंदू धर्म हाल की ही निर्मिति है,तो उनके लिए यह कहना तर्कसंगत है कि “मूर्खों का कोई भगवान् नहीं होता है।”
ऐतिहासिक तथ्य यह है कि सिद्धार्थ गौतम क्षत्रिय थे, इक्ष्वाकु वंश के अर्थात् मनु के वंशज थे। यह बात स्वयं बुद्ध ने ही कही है । सिद्धार्थ शाक्य वंश के राजा शुद्धोधन के बेटे थे। स्वयं बौद्ध जन भी बुद्ध को ‘शाक्य-मुनि कहते हैं। अर्थात् शाक्य वंश के श्रेष्ठ ज्ञानी। यदि उस वंश और पहले की धर्म-परंपरा से बुद्ध ‘पृथक ‘हो गए होते तो नि:संदेह यह विशेषण गौरवशाली न होता। वह परंपरा मनु की अर्थात् सनातन हिंदू ही थी।
इक्ष्वाकु, मनु के ही ज्येष्ठ पुत्र का वंश है। इसे अमान्य करने और अपने को पृथक करने की घोषणा या उल्लेख भगवान् बुद्ध ने कभी नहीं की। बुद्धिज्म में वैदिक मंत्रों की तरह ही हृदय-सूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें अंत में ‘सोवाका’ अर्थात ‘स्वाहा’ भी कहते हैं, लेकिन कर्म-कांड छोड़ना कोई नई बात नहीं थी जो बुद्ध ने प्रारंभ की। ज्ञान पाने के लिए बुद्ध ने अनेक तरह के प्रयत्न किए, यह उनकी जीवन-गाथा बताती है। किसी चर्या, साधना को स्वीकार करना या छोड़ देने का उपक्रम भारत में कोई नई बात नहीं है। उससे कोई हिंदू नहीं रह जाता, ऐसा कभी नहीं समझा गया है। ज्ञान पाना, बोध होना, ‘बुद्ध’ बनना यह पहले भी हुआ है, इसे गौतम बुद्ध ने भी कहा है। सनातन धर्म की अनंत विमाएं हैं, जो आगे भी पल्लवित पुष्पित होकर विकसित होती रहेंगी, जिसमें गौतम बुद्ध पारिजात (हरसिंगार) पुष्प हैं। वायु पुराण में एक श्लोक लिखा है, कि “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः। जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।।”