गरीब का पराठा और ब्यूरोक्रेसी को संदेश
– ऋतुपर्ण दवे
कभी-कभी बहुत मामूली सी बातें न केवल हर कहीं चर्चा का विषय बन जाती हैं बल्कि इतनी भावुक और प्रभावी कर जाती हैं कि पूछिए मत। लेकिन जब मामला विनम्रता, सहजता और गरीब की पोटली में बंधे पराठे खुलवा कर एक टुकड़ा खाने का हो तो दिल को छू ही जाएगी। उसमें भी यदि जिला कलेक्टर और फरियादी का हो तो हर कहीं उदाहरण और चर्चा का विषय बनेगा ही। ऐसा ही एक वाकया उत्तर प्रदेश के औरेया जिले का है जो पूरे देश में सुर्खियां बटोर रहा है। जहां अपने रुतबे और ठसक के लिए आईएएस-आईपीएस पहचाने जाते हैं वहीं औरेया कलेक्टर इन्द्रमणि त्रिपाठी की इससे विपरीत प्रशंसा हो रही है।
हो भी क्यों न उनके दफ्तर में डरा-सहमा सा एक ग्रामीण मजदूर अपनी फरियाद लेकर बहुत दूर से आया। दफ्तर में घुसते ही वहां का माहौल उसे असहज कर, घबरा रहा था। लेकिन तुरंत कलेक्टर इन्द्रमणि त्रिपाठी ने उसकी मनोदशा भांपी, पूछा कि घर वापस पहुंचने में देर हो जाएगी तो रास्ते में भूख का क्या इंतजाम है? भोले-भाले मजदूर ने हाथ में रखे झोले से पोटली निकाल डरते-डरते दिखाते हुए कहा कि उसकी पत्नी ने कुछ पराठे बांध दिए हैं। इतना सुनते हुए त्रिपाठी ने कहा कि मैं तुम्हारा काम तभी करूंगा जब तुम मुझे अपना पराठा खिलाओगे! यह सुनते ही मैले-कुचैले कपड़े पहना फरियादी असमंजस में पड़ गया और बहुत हिम्मत कर बोला मैं तो छोटा आदमी हूं, आप कहां मेरे पराठे खाएंगे?
कलेक्टर त्रिपाठी ने तपाक से कहा कि छोटा-बड़ा कुछ नहीं, पराठा खिलाओगे तभी काम करूंगा। फरियादी ने बड़ी ही झिझक से शर्माते हुए घर से लाई पोटली में बंधे हुए पराठों को कलेक्टर के सामने खोला और दे दिया। उसमें से एक टुकड़ा लेकर कलेक्टर ने खाना शुरू कर दिया। यह देख उनके साथ बैठे सभी मातहत भी अवाक और हक्का-बक्का रह गए। बाद में फरियादी के घर पर जिला प्रशासन की टीम पहुंची। वहां पता चला कि उसके बड़े भाई लकवाग्रस्त हैं। उनके इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। इसलिए वह अपने हिस्से की जमीन बेचकर भाई का इलाज कराना चाहता है। जमीन बेचने की बात पर तीन भाइयों में विवाद है। प्रशासनिक अमले ने तीनों को साथ बिठाकर बात कराई। भाई के इलाज के लिए सरकारी मदद की प्रक्रिया भी शुरू कर दी और सभी के आपसी गिले-शिकवे दूर हो गए। फरियादी समस्या के समाधान से ज्यादा इसलिए बेहद खुश और भावुक था कि इतने बड़े अधिकारी ने इतना आत्मीय व्यवहार कर उसके पराठे खाए।
यकीनन यह घटना कल्पना से परे है। ऐसे नजारे देश में गिने-चुने ही हुए होंगे। जिला, संभाग, तहसील तथा हर सरकारी दफ्तर के अधिकारी सरकार के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं। लगभग हर कहीं एक तय दिन पर जन सुनवाई, जनता दर्शन जैसे विभिन्न नामों से सरकार की ओर से दरबार लगते हैं। दूरदराज से ज्यादातर ग्रामीण व ऐसे लोग जिनकी कोई राजनीतिक पकड़ या जुगाड़ नहीं होती, सीधे अधिकारियों के पास पहुंचते हैं। लेकिन एक बड़ी हकीकत यह भी कि कितने मामले निराकृत होते हैं या लोगों को संतुष्ट करते हैं, सब जानते हैं। कई जगह तो ठीक से फरियाद तक नहीं सुने जाने की सच्चाई भी सामने आती है। अधिकतर अधिकारी निराकरण के नाम पर महज खानापूर्ति करते हैं। सीएम हेल्पलाइन जैसी सुविधा भी कुछ राज्यों में है। फोन पर आमजनों से शिकायत लेकर पंजीकरण होता है। जिसे संबंधित जिले, फिर विभाग को भेजा जाता है। अमूमन शिकायतों को ब्यूरोक्रेसी में बेवजह का बवाल तक समझने की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। कुछ अन्य राज्यों में तो सीएम हेल्पलाइन या डेस्क की शिकायतें को बंद कराने के लिए अधिकारियों का दुर्व्यवहार यहां तक फोन पर धमकाने के भी ऑडियो खूब वायरल हुए। कई जगह बरगला कर झूठे आश्वासन देकर शिकायतें बंद कर दी गईं और जनसाधारण की समस्या वही ढ़ांक के तीन पात जैसी रह गईं।
यह सही है कि अधिकारी जनसाधारण के वाजिब काम और समस्याओं को सुनने और उनका निराकरण करने के लिए होते हैं। लेकिन देश में भ्रष्टाचार का दीमक इस कदर हर विभाग में जड़ें जमाए हुए है कि लोगों को अपने काम के लिए बिना लेन-देन सफलता नहीं मिलती। भ्रष्टाचार एक रिवाज बन चुका है। देश में ब्यूरोक्रेसी पूरी तरह से हॉवी है। लोग अपने-अपने काम के लिए दफ्तरों के चक्कर पर चक्कर लगाते हैं और रोजाना भटकते हैं, वहां यह एक मिशाल है। क्या यह रवैया पूरे देश में नहीं हो सकता? अवैध चढ़ौती के दम पर कई लोगों के हकों पर डाका डालने से लेकर नौकरी से लेकर फर्जी दस्तावेजों, विकलांगता के झूठे प्रमाण-पत्रों से सुपात्रों के हक छीनने और झूठी जानकारी के चलते जन्म तारीख और जाति बदल कर ऐन-केन-प्रकारेण ऊंची नौकरी तक हथियाने की सच्चाई सामने आ चुकी है। पूजा खेडकर का ताजा मामला सामने है। ऐसे में लोग न्याय के लिए किसके पास जाएं? किससे उम्मीद करें?
कहने को तो सरकार ने कई हेल्पलाइन नंबर जारी किए हैं। जनता से जुड़े अधिकारियों के मोबाइल नंबर तक सार्वजनिक हैं। लेकिन यह कितने उठते और सार्थक हैं सब जानते हैं। शासन-प्रशासन में जनता-जनार्दन को सुनने और निराकरण करने वालों को इन्द्रमणि त्रिपाठी से प्रेरणा लेना चाहिए। काश, यह घटनाक्रम एक नजीर के रूप में ब्यूरोक्रेसी की ट्रेनिंग में शामिल होता तो कितना अच्छा होता। बहरहाल अनजाने-अनचाहे ही सही, आईएएस त्रिपाठी के इस मर्मस्पर्शी व्यवहार की प्रशंसा तो बनती है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)