देश की जरूरत है समान नागरिक संहिता और चुनाव-सुधार
– गिरीश्वर मिश्र
‘गण’ समूह की इकाई का बोधक प्राचीन शब्द है। वह एक ऐसी इकाई जो सुपरिभाषित हो और जिसका परिगणन संभव हो। गण ‘संघ’ का पर्याय है और गणों का समूह भी। देवताओं में विघ्न विनाशक गणेश जी ‘गणपति’ के रूप में विख्यात हैं। अभी-अभी पूरे देश में उनकी वंदना का उत्सव मनाया गया। स्वयं गणपति तो सेकुलर हैं पर सेकुलर राजनीति उनको ग़ैर-सेकुलर मानती है। भारत की संसद ने एक संविधान को अंगीकार किया जो सामाजिक विषमताओं और असमानताओं को दूर करने और नागरिक जीवन के विधिसम्मत संचालन की व्यवस्था करता है। उल्लेखनीय है कि देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता और बहुलता उस समय भी मौजूद थी जब संविधान बन रहा था। परंतु उस दौरान सब के बीच देश की एकता मुखर थी और उसके प्रति एकल प्रतिबद्धता थी देश को स्वतंत्रता मिली और ‘स्वराज’ यानी अपने ऊपर अपना राज स्थापित करने का अवसर मिला।
स्वराज का भाव जिम्मेदारी भी सौंपता है। हमने स्वतंत्रता का स्वाद तो चखा पर उसके साथ की जिम्मेदारी उठाने में कतराते गए। देश को देने की जगह क्या क्या पा लें इस चक्कर में भ्रष्टाचार, भेदभाव, द्वेष, संघर्ष तथा अवसरवादिता बढ़ने लगी। अब नैतिक मानकों से परे हट कर धनबल, बाहुबल और जाति बल के साथ दबंग-बल राजनीति में प्रभावी हो रहा है। बेरोजगारी और मंहगाई आम लोगों के लिए विकट समस्या है। अब लोकसभा और राज्यसभा में भी अभद्र व्यवहार बढ़ रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरंकुश अराजकता के चलते संसद न चले यह लोकतंत्र के लिए घातक है। देश और समाज की चिंताओं पर आज सत्ता की लालसा हावी हो रही है। राजनीति कमाऊ व्यवसाय का रूप लेती जा रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की स्वतंत्रता को रचनात्मक कार्यक्रमों से जोड़ने की कोशिश की थी परंतु राजनीति आडंबरों में फँसती गई। देश और राष्ट्र की चिंता पृष्ठभूमि में जाती रही और हम भूल गए कि हम देश के ऋणी हैं। हमने उसे उपभोग की वस्तु बना दिया। पृथ्वी को मातृभूमि मान कर पुत्र की तरह उसकी सेवा सुश्रूषा और रक्षा करने की बात अटपटी लगने लगी। अपना हक़ जताते हुए हम दोहन करने लगे। पर ‘नागरिक’ होने का अर्थ सभी भारतीयों के लिए क्या हो इसे सवाल बनाया जा रहा है और सबके लिए एक नागरिक संहिता या यूसीसी को कुछ लोगों के नागरिक होने के अधिकार की स्वतंत्रता पर आघात के रूप में देखा जा रहा है। गौरतलब है कि नागरिक होने के नाते सभी भारतीय कुछ मूल अधिकारों को पाने और कुछ कर्तव्यों का पालन करने के अनिवार्य दायित्व से खुद ब खुद स्वाभाविक रूप से जुड़ जाते हैं। सामान्य जीवन निर्बाध रूप से चल सके इसके लिए एक देश में एक तरह के नागरिकता बोध को व्यवहार में लाना जरूरी है। गौरतलब है कि यूसीसी सेकुलर दृष्टि से सबको एक नागरिक का दर्जा देता है। समानता और समता के उद्देश्य को पाने के लिए यह एक निर्णायक कदम होगा।
चुनाव संसदीय प्रजातंत्र की हमारी बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था की एक बड़ी खूबी है जिसके सहारे आम जनता देश के शासन में अपनी भागीदारी मह्सूस करती है। सामान्यत: प्रदेश और देश के स्तर पर ये चुनाव पांच साल के अंतराल पर आयोजित होते हैं। आज़ादी मिलने के बाद दोनों साथ होते थे पर अब आज की स्थिति यह हो गई है कि इन चुनावों का केलेंडर अलग ही हुआ करता है । इन चुनावों के दौरान हो रही उठा-पटक के साथ पूरे देश का माहौल गर्माता रहा है। चुनावी खेल का महोत्सव लगभग साल भर चलता ही रहता है और इसे देख देख जनता ऊब चुकी है और नेता गण भी थक जाते हैं । हर चुनाव कोई एक क्षणिक घटना न हो कर कुछ महीनों तक खिंचने वाली लम्बी प्रक्रिया होती है। इसमें न केवल राजनैतिक दल अपनी जोर आजमाइश करते हैं बल्कि चुनाव आयोग और सरकारी प्रशासन तंत्र को लम्बी चौड़ी व्यवस्था को भी चाक-चौबंद रखना पड़ता है। चुनाव कराने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने पर हज़ारों करोड़ का खर्च बैठता है जिसका भार जनता ही उठाती है। सरकार भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ी होती है इसलिए उसके काम बाधित होते हैं ख़ास तौर पर आचार संहिता का ग्रहण लगने पर सब काम ठप हो जाता है। चुनावी दंगल का लगातार होते रहना पक्ष और प्रतिपक्ष किसी के भी हित में नहीं दिखता।
वस्तुतः निरंतर चल रहे चुनाव का खामियाजा देश में हर किसी को भुगतना पड़ता है। सरकारी काम का हर्जा तो होता ही है सरकारी खर्च बढ़ता है, महंगाई बढ़ती है और साथ में प्रशासनिक मुश्किलें भी बढ़ती हैं। परन्तु इन सबसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है की सतत चुनाव के चलते राजनैतिक राग-द्वेष की सतत गूंज सामाजिक परिवेश को प्रदूषित करती है । राजनैतिक दल एक दूसरे पर सच्चे झूठे आरोप प्रत्यारोप लगाने पर उतारू रहते हैं। मीडिया चुनावी घमासान में इस कदर मशगूल होता है कि और सारे मुद्दे धरे रह जाते हैं। चुनाव कहीं भी हो मीडिया का खटराग पूरे देश को जगाए रखता है। अपने -अपने पक्ष में सत्य रचने की कवायद देख-देख जनता बुरी तरह थकती जा रही है। पार्टियों की बढती प्रतिद्वंदिता के चलते प्रत्याशियों और समर्थकों के बीच खतरनाक हद तक पहुँच जाते हैं। अपनी बढत के लिए कुछ भी करने पर लोग आमादा रहते हैं। लगातार बजती चुनावी घंटी बजते सुन आम आदमी की मुश्किलें कई तरह से बढ़ती हैं। थकान के बीच उसकी बढ़ती चुनावी उदासीनता प्रजातंत्र के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होगी। लोक सभा और प्रदेश की विधान सभाओं के चुनावों के अलग -अलग आयोजित होने का एक अनपेक्षित किन्तु देश के लिए निश्चित रूप से एक अहितकर परिणाम यह होता है कि स्थानीय मुद्दों और समग्र देश के लिए सोचने के बारे में अस्पष्टता रहती है। अत: राजनैतिक दलों को इस विकल्प पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि देश में लोकसभा और प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। इससे राजनीति में जन भागीदारी बढ़ेगी, चुनावी खर्च भी कम होगा और प्रशासनिक तंत्र के लिए भी सुविधा होगी। यह चुनावी बेहद सुधार जरूरी है। राजनीति में शुचिता लाए बिना देश की तरक्की को गति नहीं मिल सकती न ही जन कल्याण का वह स्वप्न ही पूरा हो सकेगा।
भारत का संविधान एक अद्भुत राष्ट्रीय दस्तावेज है जो अपनी विशालता और आन्तरिक संगठनात्मक परिपक्वता की दृष्टि से अन्य देशों के संविधानों की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित माना जाता है। यह संविधान सरकार को संचालित करने और देशवासियों को नागरिक की हैसियत से आचरण करने के लिए मुख्य नियामक के लिए नियामक है । इसके साथ चलते हुए देश ने अब तक सात दशकों की लम्बी यात्रा पूरी की है। उल्लेखनीय है कि देश की परिस्थितियों के लिए अनुकूल व्यवस्था बनाने के लिए संविधान में पिछले सात दशकों में अब तक सौ से ज्यादे संशोधन हो चुके हैं । बदलत्ती स्थितियों में नियम कानून में भी बदलाव जरूरी हो जाता है। मानवीय गरिमा , समानता और स्वतंत्रता के लक्ष्य पाने के लिए नैतिक सोच जरूरी है। ‘देश में ही जनता भी रहती है और राजनीति करने वाले भी । दोनों ही ‘देश’ की स्थिति को लेकर चिंतित रहते हैं और यह होना भी चाहिए। पर वास्तविकता कुछ और ही होती है। अलग अलग राय देते हुए भी सभी राजनीतिक दल देश के हित की दुहाई देते नहीं अघाते। हमारे माननीय जन प्रतिनिधियों पर बड़ी जिम्मेदारी है की छद्म आचरण छोड़ कर जनता के भरोसे का आदार करें और देशहित को आगे रखेंगे। देश के रहने या होने पर ही सभी हैं और सब कुछ है। अनपढ़ भारतीय के भी मं के किसी कोने में यह विश्वास जीवित है कि राजनीति स्वभाव से ही लोक हित के लिए समर्पित होती है ( या होनी चाहिए ) । इस हिसाब से राजनेता जनता का हिस्सा होता है, ऐसा हिस्सा जो जनता का हित साध सके। आशा है नेतागण इस भरोसे को नहीं तोड़ेंगे और जनहित में फ़ैसले लेंगे। अंतत देश की उन्नति से ही उनका भी भला होगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)